डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर और स्त्रीप्रश्न
देवकुमार अहिरे
प्राचीन काल से वर्तमानतक भारतीय स्त्री
की सामाजिक यात्रा की बात करे तो हमे यह ज्ञात होगा कि स्त्री को सामाजिक-धार्मिक
और राजनैतिक बंधनो, बर्बर और अमानवीय अत्याचारो के मार्ग से गुजरना पडा है| आज के
वैज्ञानिक और आधुनिक दौर में भी कभी शनी शिंगणापूर, तो कभी सबरीमला जैसे उदाहरनोसे
हमे यह दिखाई देता है की, वह अपनी गुलामी कि बेडीयोंसे आजभी मुक्त नही हो पाई है|
आजभी उसे संघर्षही करणे पड रहा है| हर्ष की बात तो यह है की, आजकी स्त्री अपने
रोजमर्रेकी व्यक्तिगत जीवन, सामाजिक जीवन और हर जगह डटकर सामना कर रही है| यह जो
बदलाव हुआ है, उसमें स्त्री चेतना का बहोत बडा हात है और यह स्त्री चेतना सहजरूपसे
हमारे देशमे हुई नही है| इसके लिए बहोत सारे लोगोंने संघर्ष किया है, लेकीन आज उन
सभी महानुभाओकी काम की चर्चा हम नही कर सकते, उसके लिए एक अलगसे स्वतंत्र परिचर्चा
और संवाद का आयोजन करना पडेगा| डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का नाम
नारीप्रश्न के संदर्भमें बहोतही महत्वपूर्ण रहा है इसीलिये मैं ‘डॉ.
बाबासाहेब आंबेडकर और स्त्री प्रश्न’ इस विषय पर मेरी बात रखने वाला हुं|
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का दो तरहसे
चित्रण हुआ है| एक ‘दलित नेता’, ‘दलितोके
के महीसा’ के रुपमे और दुसरा ‘संविधान के निर्माता’ के रुपमे उन्हे चित्रित किया
गया है| आजभी लोग जोरशोर से ‘दलित मसीहा’ और ‘संविधान के निर्माता’ की उनकी
प्रतिमा को याद करते ही, लेकीन उनकी जो सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की सोच थी, वह
पूरी तरहसे भूला दी गयी है| आज अगर हम देशकी सामाजिक और आर्थिक स्थिती को समजनेकी
कोशिश करेंगे तो हमे डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के विचारो को समजना होगा| आज एक तरफ
उनकी मुर्तीया बनाई जा रही है और दुसरी
तरफ उनके विचारोंकी हत्या हो रही है| जैसे की एक तरफ दलित राष्ट्रपती और पिछडा
प्रधानमंत्री है और दुसरी तरफ दलित अत्याचारोमें बढोतरी है, सामाजिक न्याय को भुलाया
जा रहा है| डॉ. आंबेडकर ‘दलितो के महीसा’
और ‘संविधान निर्माता’ बादमें है, सबसे पहले वे लोकतंत्र के पक्षधर, लोकतांत्रिक
बुद्धीजीवी और भारतीय समाज का धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, लैंगिक और आध्यात्मिक लोकतांत्रिकीकरण
के लिए लढनेवाले जैविक कार्यकर्ता थे|
समाज
निर्माण में नर और स्त्री समान रूप से सहभागी है| समाज के विकास और उन्नती के
संदर्भमें बाबासाहेब आंबेडकर ने कहा था – “ मै किसी समाज की प्रगती का अनुमान इस
बात से लगाता हुं कि उस समाज की महिलाओ की कितनी प्रगती हुई है|” स्त्री के उन्नती
कें बिना परिवार, समाज एवम राष्ट्र कि उन्नती और समाज का लोकतांत्रिकीकरण की सोच
करना, यह वैचारिक अस्पष्टता का लक्षण है|
आंबेडकर,मनुस्मृती
और स्त्रीप्रश्न -
१९२७ में बाबासाहेब आंबेडकरने मनुस्मृती
जलाई| मनुस्मृती जलांना सिर्फ एक कृती नाही थी, उसके पीछे एक बहोत सामाजिक
क्रांतिकारी सोच थी| मनुप्रणीत वर्णव्यवस्था सिर्फ शूद्रोको ही नाही तो सारे
वर्णोकी नारीयोंको सदा के लिये दोयम दर्जा दिया है| मनुप्रणीत धर्मशासन संपूर्ण
भारतवर्षमें भले ही हो ना हो लेकीन, आज स्त्री जाति का अपमान, तिरस्कार, जो भारत
के हर एक कोने में दिखाई देता है, उसका शत प्रतिशत जिम्मेदार मनु और मनुस्मृती को
प्रमाण माननेवाली विचारधारा है| बाबासाहेब
आंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘हिंदू स्त्री का उत्थान और पतन’ मी लिखा है- “ हिंदू स्त्री
के पतन का जिम्मेदार हिंदूओ का शास्त्रकार मनु ही था| इसका अन्य कोई उत्तर हो ही
नही शकता|”
मनु ने भारतीय स्त्री को जन्म से लेकर
मृत्यू तक किसी न किसी पर निर्भर करके रख दिया| उसके सक्षम बनने सारे रास्ते मनूने
बंद कर दिये| उसने स्त्री को बाल्यावस्था में पिता पर, युवावस्था में पति पर और
वृद्धावस्था में पुत्र पर निर्भर कर दिया| नारीको तलाक लेने का अधिकार नही, शिक्षा
का अधिकार नही| इस तरह समाजव्यवस्था मनु चाहता था, जहा स्त्री को सदैव अपमान, दोयम
दर्जा, शोषण और गुलामी का ही सामना करना पडता होगा| प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक
प्रदीप गोखले इन्होने अपनी मराठी किताब ‘विषमतेचा पुरस्कर्ता मनु’ और प्रसिद्ध
नारीवादी समाजशास्त्रज्ञ शर्मिला रेगे इन्होने अपनी अंग्रेजी किताब ‘Against the Madness of Manu’ में मनुस्मृती का
गहरी चिकित्सा की है|
महात्मा जोतीबा फुले उन्नीसवी शताब्दी
महाराष्ट्र में अज्ञान के वजहसे ही शूद्रो और नारीयोंकी यह हालत हुई है, यह
लोगोंको समजा रहे थे| उनका विचार बाबासाहेब आंबेडकर आगे ले बढाने की कोशिश कर रहे
थे, इसीलिये बाबासाहेब आंबेडकरने भी स्त्री शिक्षा बढावा दिया| शिक्षा का महत्व
प्रतिपादित करते हुए डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर कहते है, “ शिक्षा शेरनी का दुध है|
शिक्षा के बिना जीवन व्यर्थ है| कुछ सोचने व चिंतन करने की ताकत शिक्षा से ही संभव
है|” मनुस्मृतीने स्त्री के शिक्षापर पाबंदी लगायी थी इसीलिये वह पुरी गुलामीमें
बंधी थी| भारतीय स्त्री को अगर दयनीय स्थिती से उबारना हो, तो उसे समता,
स्वतंत्रता और न्याय को समजना होगा और उसके लिये शिक्षा का महत्व अहम है, इसीलिये
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने महाड सत्याग्रहमें मनुस्मृती जलाते हुये कहा था- “ ज्ञान
और विद्या यह सिर्फ पुरुषो के नही है, स्त्रीयोंके लिए भी बहुत जरुरी है.|”
आंबेडकर,
स्त्री अधिकार और अंतरधर्मीय विवाह
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जातीनिर्मुलन का
आंदोलन चला रहे थे, इसीलिये वे प्रारंभसेही आंतरजातीय विवाह के समर्थक थे| लेकीन,
बहोत कम लोगोको पता है की, उन्होने अंतरधर्मीय विवाह का भी बडा जोरदार समर्थन किया
था| १९२७ में पुणे स्थित मालिनी पाणंदीकर नामक हिंदू लडकीने गुलाबखानसे रजिस्टर
पद्धतीसे शादी कर ली थी| इसी दौरान पुरे भारत में हिंदू-मुस्लीम टकराव बहोतही बढा
था, बहोत जगह-जगहपे फसाद हो रहे थे| इस दरम्यान यह शादी हुई| इस शादी के विरोध में
महाराष्ट्रमें बहोत बबाल हुआ, विरोध किया गया लेकीन, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर आखिर
तक इस विवाह के समर्थन में ही रहे| उन्होने अपनी पत्रिका ‘बहिष्कृत भारत’ में
शादीके समर्थन मे दोन लेख भी लिखे है| हिंदू-मुसलमान
टकराव को नष्ट करणे और हिंदू-मुस्लीम एकता के लिये उन्होने इस शादी का समर्थन १
जुलाई १९२७, बहिष्कृत भारत के ‘हिंदु मुसलमानांच्या ऐक्याचा उपाय’ अग्रलेख में
किया था|
हिंदू-मुस्लीम टकराव खत्म हो और उनका ऐक्य हो सिर्फ इसलिये डॉ. आंबेडकरने
पाणंदीकर-खान विवाह का समर्थन नही किया था| आंबेडकर सुरुवातीसे जातीआधारित विवाह
की चिकित्सा कर रहे थे, १९१६ की ‘Caste in India’ में भी उन्होने इसका जिक्र किया
था| आगे, १९२९ में जब मद्रास प्रांत में
‘स्वाभिमान संरक्षण परिषद’ने स्त्रीयोंके सवालोको लेके कुछ रिझोल्युशन पारित किये
थे| उसके समर्थनमें डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरने २९ मार्च १९२९ के बहिष्कृत भारतमें
लिखा है- “१) औरतो को
कूच भी काम करणे का आदमी जैसा अधिकार होना चाहिये, २) औरतो को आदमी समान
उत्तराधिकार और पारिवारिक संपत्ती मे अधिकार चाहिये, ३) दुल्हा- दुल्हन के मर्जी
के खिलाफ शादी नही करना चाहिये और पुर्नविवाह को विरोध नही होना चाहिये, ४) जात,
वर्ग और समाज के परे जाके लडकी- लडकेको पुरी छुट होनी चाहिये इसीलिये कानूनमें
बदलाव करना चाहिये|”
नागपूर में महिलाओं के संमेलन को
सम्बोधित करते हुए उन्होने समझाया था- ‘विवाह एक दायित्व है| इसे बोझ न समझे|
बच्चो के विवाह में जल्दी न करे- उसे शिक्षित बनाए, अपने पांवों पर खडा होने दे|
इस दायित्व को तब तक अपने बच्चो पर न लादे जब तक कि वे विवाह के दायित्वो को
निभाने के लिए मानसिक एवम आर्थिक रूप से सक्षम न हो जाए|’ इससे यह स्पष्ट हो जाता
है की, डॉ. आंबेडकर शुरुवातीसेही स्त्रीयोंकें विवाह अधिकार, संपत्ती अधिकार,
व्यवसाय स्वतंत्रता का अधिकार के पक्षधर थे| आजकल लोग ‘लव जिहाद’ की बाते कर कें,
आंतरधर्मीय विवाह विरोध करते है लेकीन, आंबेडकर विचार आंतरधर्मीय विवाह को समर्थन
देने वाले है| यह आज के संदर्भमें बहोतही महत्वपूर्ण है|
स्त्री,
जातीव्यवस्था और आंबेडकर
स्त्री शोषित है लेकीन, सारी स्त्रिया एक
समान शोषित नही है| जाती हा सवाल और स्त्रीयोंकी समस्याए अलग अलग तरहसे नही समज
सकते| इसकी अच्छी समज डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर को थी, इसीलिये उन्होने कहा था-
‘स्त्री यह जातीव्यवस्था की प्रवेशद्वार है|’ उनके इस सिद्धांत को ‘Caste in India’ इस
ग्रंथमें बहोत अच्छी तरहसे स्पष्ट किया है. वो कहते है – “ भारतमें स्त्रीयोंपें
बंधन डालकर, अत्याचार और हिंसाचार करके जातीप्रथा अधिक तरहसे मजबूत कि गई है, उसकी
साथ जाती को बंधिस्त बनाने के लिये सतीप्रथा, बालविवाह और विधवा जैसे प्रथा जन्मी
है|” स्त्रियोके माध्यमसे जातीव्यवस्था को ‘पुनरुत्पादित’ और ‘शुद्ध’ किया जाता
है, इसीलिये बाबासाहेब आंबेडकर हर बार जाती की चर्चा करते हुये स्त्रीयोंके सवालो की चर्चा करते है|
जाती के संदर्भ डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरने दो महत्वपूर्ण बाते कही है| लोगोको
सिर्फ ‘जाती यह श्रेणीयुक्त विषमता है’ यही पता है लेकीन, ‘जाती यह एक श्रेणीयुक्त
सार्वभौम सत्ता है’ यह दुर्लक्षित है| जाती एक श्रेणीयुक्त विषमता और श्रेणीयुक्त
सार्वभौम सत्ता होणे के वजहसे वह जातीपितृसत्ताके जरीये स्त्रीधर्म, स्त्रीस्वभाव
कि एक सोच निर्माण करता ही| जीससे एक तरफ स्त्री जातीव्यवस्था को पुनरुत्पादित
करती है, और दुसरी तरह जातीप्रथा स्त्रीयोंका जातीआधारित बटवारा करती है| इसके
वजहसे स्त्रीयोंकी एक संघटीत शक्ती नही उभर सकती. इसीलिये दलित स्त्रीयोंके और
पिछडी, घुमंतू और आदिवासी स्त्रीयोंके सवालोको अलगसे देखना पडता है| डॉ. बाबासाहेब
आंबेडकरने ‘अखिल भारतीय दलित महिला परिषद’ के संमेलनोमें जो प्रतिपादन किया है, वह
इस संदर्भ बहोतही दिशादर्शक है|
कामगारवर्गीय
स्त्री, अखिल भारतीय महिला परिषद और आंबेडकर
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की कर्मभूमी
मुंबई थी| इसीलिये वे शुरुवातीसे ही मुंबई के कामगारवर्गीय जीवनसे परिचित थे| उनके
जातीके बहुसंख्य लोग उस व्यक्त मुंबई में मजदूर थे| उनका कार्यालय ही
कामगारबस्तीने में था| जुलाई १९२९ में ‘प्रसूति अवकाश सुविधा कानून’ पारित किया
गया| उसके संदर्भमें मुंबई विधान परिषद जो चर्चा हुई थी| उसमें बाबासाहेब
आंबेडकरने कहा था- ‘महिलाओ को प्रसूति अवकाश सुविधा प्रदान करना राष्ट्रीय हित में
एक महत्वपूर्ण कदम है|’ स्वतंत्र मजूर
पक्षके कार्यकालमें डॉ. आंबेडकरने बहोतसारे कामगारवर्गीय और किसानो के आंदोलन
चालये. इसी के वजहसे वो आगे चलकर मजदूर मंत्री भी बने| स्त्रीयोंके वेतनमें जो
भेदभाव होता था| वह उन्होने ‘एकसमान काम के लिये एकसमान वेतन’ यह धोरण बनाके कम
करने की कोशिश कई| उन्होने कभी भी इस संदर्भमें लिंगभेदीय भेदभाव किया नही|
अखिल भारतीय महिला परिषद का जन्म पुणे
में १९२० को हुआ और डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का राजनैतिक कार्य १९१९ में शुरू हुआ|
इसका मतलब यह है की, डॉ. आंबेडकर को शुरुवातीसेही अखिल भारतीय महिला परिषद के
बारेमें पता था| १९२० के बाद भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन स्त्रीयोंका सहभाग भी बढने
लगा| राजनैतिक स्वतंत्रता के साथ सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता माग करना यहभी
स्त्री आंदोलन का भाग रहा है| उसी दौरान डॉ. आंबेडकर सामाजिक-आर्थिक स्वतंत्रता,
समता मांग कर रहे थे| १९३० के बाद डॉ. आंबेडकरने आर्थिक-सामाजिक लोकशाही, समता और
स्वतंत्रतापे अधिक जोर दिया है, यह हमे उनके साप्ताहिक जनतासे समजमें आता है| समाज
का लोकतांत्रिकीकरण में अखिल भारतीय महिला परिषद अहम भूमिका है| ऐसा डॉ. बाबासाहेब
आंबेडकर को समज चुका था, इसीलिये उन्होने लखनौमें हुये महिला संमेलनकी सभी मांगो
को छापा है| महिला सक्षमीकरणके संदर्भमें वह संमेलन हुआ था| उसकी मांगे थी- ‘१)
पुरुषो जैसा स्त्रीयोंको रोजगार और संपत्तीमें समान अधिकार होना चाहिये, २) एकसमान
काम के लिये एकसमान वेतन होना चाहिये, ३) प्रसूति के पहिले और बादमें भी वेतनी
सुविधा अवकाश चाहिये, ४) मुफ्त दवा-दारू चाहिये, ५) जादासे जादा सात घंटे काम होना
चाहिये, ६) रात और खानोकें काम पर बंदी
चाहिये, ७) कुटुम्ब नियोजन और बच्चोकी सुविधा शिक्षणके व्यवस्था चाहिये, ८)
गर्भपात करणे हा अधिकार होना चाहिये, ९) समान राजनैतिक अधिकार चाहिये, १०)
संपत्तीके बिना मतदान अधिकार और मर्जीसे तलाक लेनेका अधिकार चाहिये.. आर्थिक
स्वतंत्रता यह भारतीय स्त्रीयोंकी मुख्य मांग है|’ यह पुरी मांगे अपनी संमती
दर्शाते हुये डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरने १४
जनवरी १९३३ के जनतामें छापी है |
इससे यह स्पष्ट होता है की, डॉ.
बाबासाहेब आंबेडकर स्त्रीयोंके अलग अलग सवालोकी बहस कर रहे थे| उनसे संवाद बनाये
हुये थे और कामगारवर्गीय मजदूर स्त्री हो या राजनैतिक स्वतंत्रता आंदोलनकी स्त्री
हो सबके सवालोकें डॉ. आंबेडकर पक्षधर थे|
हिंदू कोड बिल,
रूढीवादी और आंबेडकर
भारतीय
स्त्रीयों के उत्थान और विकास में डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर का सबसे महान कार्य व
योगदान ‘हिंदू कोड बिल’ है| ब्रिटीश
सरकारने सन १९४१ में सर बी. एन. राव की अध्यक्षता में एक समिती ‘हिंदू कोड बिल’
के प्रारूप तैयार करने के लिये बनाई|
‘हिंदू कोड बिल’ प्रारूप पर सन १९४६ तक बहस चलती रही| बादमें इसका भार विधीमंत्री
डॉ. आंबेडकर पर आया. उन्होंने अत्याधिक परिश्रम करके इसका निर्माण किया| डॉ.
आंबेडकर ने भारतीय समाज में स्त्री को पुन: सन्मान के साथ प्रस्थापित करने के लिये
‘हिंदू कोड बिल’ प्रस्तुत किया| इस बिलने शताब्दीयों से पिडीत भारतीय स्त्री को
स्वतंत्रता, समता, सम्पत्ती में अधिकार, तलाक, विधवाविवाह, गर्भवती महिलाओ को
प्रसूति अवकाश जैंसे मानवीय अधिकार देने की तरतूद थी|
हिंदू कोड बिल का उद्देश हिंदूओ के
परंपरागत कानूनो में एकरूपता लाकर उसे कानूनी रूप देना और उसका आधुनिकीकरण करना
था| डॉ. आंबेडकर ने कहा की, ‘ ये बिल
हिंदू धर्म शास्त्रो के आधार पर बनाया है| यदी हिंदू न्याय पूर्ण जीवन पद्धती
चाहते है तो उनके लिये यह ‘बिल’ प्रशस्त करता है’ पर रूढीवादियोने इस बिल का विरोध
किया| बिलमें दो-दो बार संशोधन किया किंतु
सरदार पटेल और राजेंद्र प्रसाद जैसे कॉंग्रेसके बडे नेता इस बिल के सक्त विरोधमें
थे| जनतामें हिंदुत्ववादी, रूढीवादी लोगोने हिंदू कोड बिल के संदर्भमें गलत बाते
फैलाना शुरू कर दिया था| इसके वजहसे जनतामें असंतोष बढने लगा| सदन के अंदर व बाहर
इस बील के पक्ष विपक्ष में बहुत चर्चा और शोर हो चुका था| १९५२ में आम चुनाव होने वाले थे| नेहरू और
कॉंग्रेसके नेताओको चुनाव में पराजित होने का डर था| इसीलिये वे हिंदू कोड बिल कि
जोखीम उठाने को तैयार नही हुए|
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरने अपने कमजोर
स्वास्थ के बावजूद काफी मेहनत ‘हिंदू कोड बिल’में लगाई थी | जब हिंदू कोड बिल का
सिर्फ एकही हिस्सा सदनमें पारित हुआ और
बाकी बिल पारित नाही हुआ, तब अपनी अभिलाषा और परीश्रमो व्यर्थ देखते हुए डॉ. आंबेडकर
बहोतदुखी हुए और उन्होंने अपने विधीमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया| उन्हे
मंत्रीपदसे ज्यादा स्त्रीयोंकी प्रगतीमें अधिक रस था| डॉ. आंबेडकरके इस्तीफा देने
के और १९५२ चुनाव के बाद ‘हिंदू कोड बिल’ के मुद्दो को अलग अलग करके विवाह, तलाक,
भरण-पोषण, दहेज, बालविवाह, दत्तक ग्रहण, स्त्रीधन से संबंधित कई अधिनियम तथा विशेष
विशेष विवाह अधिनियम -१९५४, हिंदू विवाह अधिनियम-१९५९, हिंदू उत्तराधिकारी
अधिनियम-१९५६, हिंदू दत्तक ग्रहण निर्वाह विधेयक-१९५६, दहेज प्रतिबंध
अधिनियम-१९६५, मातृत्व हित लाभ अधिनियम, बालविवाह प्रतिबंध अधिनियम आदी पारित किये
गये है लेकीन, तबतक डॉ. आंबेडकर का महानिर्वाण हो चुका था|
आज
इतने कानून और अधिनियम होते हुए भी स्त्रीयों की स्थिती बहोत ज्यादा बदलाव नही है|
आजभी भारतमें बालविवाह होते है, दहेज लिया जाता है, स्त्रीयोंको सम्पत्ती
उत्तराधिकार नही मिळता, बेटी का जन्म अशुभ माना जाता है| डॉ. आंबेडकर के
महानिर्वाणके बाद सरकारने कई अधिनियम तो पारित कर लिए लेकीन, आंबेडकर जो सामाजिक
रूढीवादी सोच बदलके समाज का लोकतांत्रिकीकरन करना चाहते थे| वह सरकार नही कर पाई
इसीलिए आजभी सबरीमला जैसे सवाल उभरके आ रहे है|
समारोप
डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर स्त्रीमुक्ती
समर्थक थे| केवल दलित स्त्री ही नही बल्की संपूर्ण भारतीय स्त्रीयों के उत्थान के
लीए उन्होंने परिश्रम के साथ ‘हिंदू कोड बिल’ तयार किया था| डॉ. आंबेडकरने ‘Caste
in India’ से लेके ‘हिंदू कोड बिल’ तक हरेक पुस्तकमें स्त्रीयोंकें संदर्भमें
महत्वपूर्ण चिंतन किया है| स्वाभिमान संरक्षण परिषद हो या फिर अखिल भारतीय महिला
परिषद, आंतरजातीय विवाह हो या फिर आंतरधर्मीय विवाह, कामगारवर्गीय, दलित स्त्री हो
या फिर अभिजन स्त्री हो, सभीके बारेमें डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर सोचते थे|
जातिनिर्मूलन और स्त्रीमुक्ती आंदोलन
दोन्हो एक साथ किये बिना भारतीय समाज का लोकतांत्रिकीकरन करना असंभव है| यह उन्हे
समज चुका था| इसिलिए वे जाती चर्चा करते हुए स्त्रीयोंकी समस्या बताते थे और
स्त्रीयोंकी बात करते समय जातीकी चर्चा करते थे| आज, अगर हम डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर
का सामाजिक-आर्थिक लोकतांत्रिकीकरन का विचार अधिक विकसित करके आगे लेके जायेंगे तो
जाती और स्त्रीप्रश्न दोन्होंका हल निश्चितरूपसे खोज सकते है| इस आशावाद के साथ
में मेरी बात समाप्त करता हुं|