रविवार, १० मे, २०२०

जन गण मन आणि तीन कवी: नागार्जुन, गोरख पांडे आणि विद्रोही!

  
कोकणी कवी नीलबा खांडेकर म्हणतात की, ‘कविता ही सामाजिक संबंधाची पुराभिलेखागार आहे.’ (९ जाने. २०२०, द इंडियन एक्स्प्रेस)  

स्वातंत्र्योत्तर भारतात भूख, गरिबी, अत्याचार आणि शोषणापासून स्वातंत्र्य मिळवण्यासाठी झगडणारे तीन जनकवी  म्हणजे नागार्जुन (1911- 1998), गोरख पांडे (1945 – 1989) विद्रोही  (1957 -  2015). तिन्ही कवींनी ‘जन गण मनच्या अधिनायका’ला आपल्या कवितेच्या माध्यमातून प्रश्न विचारले आहेत.

भारताच्या स्वातंत्र्य चळवळीच्या आंदोलनात अनेकांनी स्वातंत्र्योत्तर भारतात ‘कामगार-शेतकऱ्यांचे राज्य’ येईल, ‘ग्रामस्वराज्य’ येईल आणि जातिमुक्त नवा भारत निर्माण होईल अशी स्वप्ने पाहिली होती. परंतु, ज्यावेळी स्वातंत्र्याचा काळ नजीक आला तेंव्हा अनेकांना असे कळून चुकले होते की, ‘इंग्रजांचे राज्य जाऊन येथे बनिया- भांडवलदारांचे राज्य येनार आहे. त्यामुळे स्वातंत्र्य आंदोलनात पाहिलेल्या स्वातंत्र्याचे गरिबी, भूख, शोषण आणि अत्याचारमुक्तीचे स्वातंत्र्य हे एक दिवास्वप्नच ठरले. अशा पार्श्वभूमीमुळेच नागार्जुन, गोरख पांडे आणि विद्रोही यांच्या सारख्या राजकीय जनकवींचा जन्म झाला.

स्वातंत्र्योत्तर काळातील सामाजिक संबंधांचे वास्तवदर्शी चित्रण या तिन्ही कवींच्या कविता दाखवतात. स्वातंत्र्योत्तर राज्यसंस्थेचे वर्गीय चरित्र समजून घेण्यासाठी सुद्धा या कवींच्या कविता अत्यंत महत्वाच्या आहेत.  

१.  नागार्जुन ची कविता!

मलाबार के खेतिहरों को अन्न चाहिए खाने को,
डंडपाणि को लठ्ठ चाहिए बिगड़ी बात बनाने को!
जंगल में जाकर देखा, नहीं एक भी बांस दिखा!
सभी कट गए सुना, देश को पुलिस रही सबक सिखा!

जन-गण-मन अधिनायक जय हो, प्रजा विचित्र तुम्हारी है
भूख-भूख चिल्लाने वाली अशुभ अमंगलकारी है!
बंद सेल, बेगूसराय में नौजवान दो भले मरे
जगह नहीं है जेलों में, यमराज तुम्हारी मदद करे।

ख्याल करो मत जनसाधारण की रोज़ी का, रोटी का,
फाड़-फाड़ कर गला, न कब से मना कर रहा अमरीका!
बापू की प्रतिमा के आगे शंख और घड़ियाल बजे!
भुखमरों के कंकालों पर रंग-बिरंगी साज़ सजे!

ज़मींदार है, साहुकार है, बनिया है, व्योपारी है,
अंदर-अंदर विकट कसाई, बाहर खद्दरधारी है!
सब घुस आए भरा पड़ा है, भारतमाता का मंदिर
एक बार जो फिसले अगुआ, फिसल रहे हैं फिर-फिर-फिर!

छुट्टा घूमें डाकू गुंडे, छुट्टा घूमें हत्यारे,
देखो, हंटर भांज रहे हैं जस के तस ज़ालिम सारे!
जो कोई इनके खिलाफ़ अंगुली उठाएगा बोलेगा,
काल कोठरी में ही जाकर फिर वह सत्तू घोलेगा!

माताओं पर, बहिनों पर, घोड़े दौड़ाए जाते हैं!
बच्चे, बूढ़े-बाप तक न छूटते, सताए जाते हैं!
मार-पीट है, लूट-पाट है, तहस-नहस बरबादी है,
ज़ोर-जुलम है, जेल-सेल है। वाह खूब आज़ादी है!

रोज़ी-रोटी, हक की बातें जो भी मुंह पर लाएगा,
कोई भी हो, निश्चय ही वह कम्युनिस्ट कहलाएगा!
नेहरू चाहे जिन्ना, उसको माफ़ करेंगे कभी नहीं,
जेलों में ही जगह मिलेगी, जाएगा वह जहां कहीं!

सपने में भी सच न बोलना, वर्ना पकड़े जाओगे,
भैया, लखनऊ-दिल्ली पहुंचो, मेवा-मिसरी पाओगे!
माल मिलेगा रेत सको यदि गला मजूर-किसानों का,
हम मर-भुक्खों से क्या होगा, चरण गहो श्रीमानों का!


२. गोरख पांडे ची कविता!

जन गण मन अधिनायक जय हे !

जय हे हरित क्रांति निर्माता
जय गेहूँ हथियार प्रदाता
जय हे भारत भाग्य विधाता
अंग्रेजी के गायक जय हे !

जन गण मन अधिनायक जय हे ! 

जय समाजवादी रंगवाली
जय हे शांतिसंधि विकराली
जय हे टैंक महाबलशाली
प्रभुता के परिचायक जय हे !

जन गण मन अधिनायक जय हे ! 
जय हे जमींदार पूँजीपति
जय दलाल शोषण में सन्मति
जय हे लोकतंत्र की दुर्गति
भ्रष्टाचार विधायक जय हे !

जन गण मन अधिनायक जय हे

जय पाखंड और बर्बरता
जय तानाशाही सुंदरता
जय हे दमन भूख निर्भरता
सकल अमंगलदायक जय हे!

जन गण मन अधिनायक जय हे

३. विद्रोही ची कविता!

मैं भी मरूंगा
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से
उधर चल कर वसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा॥


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